Wednesday 28 June 2023

बहुत दिन से दो बातें लिखने की सोच रहा था ..पर वक्त ही नहीं मिला..

आज कुछ वक्त मिला तो लिख रहा हूं...

कुछ दिन पूर्व मेरी शादी की पांचवी वर्षगांठ थी .. मेरी धर्मपत्नी ने कहा आपको इस बार कोई गिफ्ट नहीं दिया .. और दूसरे दिन देखता हूं कि मेरी पत्नी ने मेरे पिता की एक फोटो फ्रेम मुझे दिया.. पिता के साये को गये लगभग १३ वर्ष हो गए.... मैंने कभी पिता की तस्वीर को अपने साथ नहीं रखा.. हां गुड़गांव और दिल्ली में एक फ्रेम पिता की तस्वीर का था .. पर २०१५ से छत्तीसगढ़ आने के बाद अपने पास कोई तस्वीर पिता की नहीं रखी... क्योंकि जब भी पिता की याद आती है तो मन बेचैन हो जाता है... शायद इस बेचैनी से भागने की कोशिश करता हूं... और बचपन की सुनहरी यादें परेशान करती है... इसलिए हमेशा तस्वीर से दूर रहने का सोचता रहा हूं... पर जब धर्मपत्नी ने मुझे पिता की एक तस्वीर का फ्रेम दिया तो मेरे पास शब्द नहीं थे...


दूसरा हिस्सा कुछ दिन पूर्व मेरा पुत्र विभु अपने दादी के घर से आया और साथ में एक खिलौना लेकर आया ...यह खिलौना १९९७ का है जब पिता ने मुझे एक वीडियो गेम दिया था.. इस खिलौने में बैटरी नहीं थी ..बैटरी डाली तो यह खिलौना आज भी चालू स्थिति में है .....जब मैंने अपने बेटे को कहा कि बेटा यह तेरे दादा ने मुझे दिया था तो उसके पास एक अलग खुशी थी... जिसे शायद शब्द न दे पायूं.. और उस खुशी में शायद पिता को देखने का अलग सकून था....




यह सब यादों का खजाने है जहां बहुत कुछ है ... बस लिखने को हम शब्द नहीं दे पाते है....

 

Saturday 18 August 2018

सोच

मुझे विषय नही मिल रहा था कि क्या लिखूं ...काफी सोचने के बाद मित्र नें विषय दिया .."सोच"..लोकिन इसके बाद विषय में लिखूं क्या यह समझ नही आ रहा था .तो शुरूआत कि जीवन के पड़ाव से..
जीवन के हर पड़ाव को बस कुछ नामों से सम्बोधित करते ...कभी बचपन ..कभी जवानी ..तो कभी बुढ़ापा ...जीवन इन पड़ावों से गुजर कर अपना रास्ता तय करता है...सभी पड़ाव के अपने-अपने दायरें है...सभी कि अपनी उपयोगिता है...
कोई भी पड़ाव छुटे अंत नही होता ...कहने का अर्थ है कि मौत इन पड़ावों के बाद ही अपनी गति को रोकती है...
पहले पड़ाव कि बात करें तो इस कोइ कभी नही भुल सकता ..इसके होने कि महक ता उर्म इंसान के जहन में अपने होने का अर्थ देती है..जिसे नकार देना इंसान कि सबसे बड़ी भूल हो सकती है..उम्र बितने के साथ इंसान यह कहना नही भूलता की बचपन में मैंने ऐसा किया और ऐसा नही ..यह वाक्य उसके जहन में हर वक्त रटा रहता है ....इन वाक्यों के बिना इंसान अधूरा ही होता है..
बचपन के हर लम्हें को हम जैसा चाहे जी सकते ना किसी का दबाव होता है ..ना किसी कि बंदिश होती है ...हम अपनें विचारों से ...भाव से ..मन से ...जहन से..दिल से..दिमाग से...दबाव से ...हर रुप में पाक साफ होते हैं ...जहां गलतियाँ बचपनें के नाम से मशहूर होती हैं...तभी तो कहते बचपन -बचपन हैं जिसे कभी भुला नही जा सकता...जिसे जैसे रुप में उसे समझना है ...वह वैसे समझ सकता है ..मन आपका है ..तो सोचने कि इच्छा भी आपकी है ...बचपन भी आप का ही है...
दूसरे पड़ाव में जिन्दगी उलझने पैदा करना शुरु कर देती ..जहां बचपन का बचपना दुर हो जाता है ...समझ का दायरा पैर प्रसार लेता है...जहां गलतियां ...गलती में गिनी जाती है...अब बचपन अपने दायरें को बहुत पीछे छोड़ देता है...उलझने सीमा से परे सोचने को मजबूर करनें लगती है...अब जहन ..भाव..विचार... सोच ...मन ..उम्मीद..बंदिशें ...सब का दायरा बड़ जाता हैं...अब समझ नही होती... रटी बातें प्रभावी होती हैं...जहां बाहरी अडंबर हावी होता ..किसी को किसी जिद्द होती ...जहां भागने कि कोशिश रहती है...रेस में सब से आगे निकलने कि चाह हावी होती...जहां लड़ाई दूसरे से  ज्यादा अपने आप से होती है...
यह पड़ाव अपने में सब कुछ समा कर रखता है ..जिसे जिताना खोजे वह उतना जहन को निचोड़ता है...कभी दायरें मजबूरी का रुप लेते है ...अब जीवन तरह-तरह के रंगों से भरें होने कि जगह ..बेरंग छवि का होता है ...अब बचपन जहन में खुशी का संचार का माध्यम होती है ..जिसे सोचकर खुश होने का मंत्र लिया जाता है .......  
ऐसा नही कि हर दूसरे पड़ाव में हर कुछ उलझन में होता है...कुछ उलझने समझते-समझते जीवन के होने का अर्थ समझने में असानी हो जाती हैं... और बहुत कुछ अच्छा भी होता है..जहां आशा...दिलासा...उम्मीद....धैर्य ...कर्म...ओर बहुत कुछ जीवन को बांध कर रखता है...कुछ पल को व्यक्ति बस समझता है...कि यह नियम संसार में सब के साथ बंधा होता है..उस से भागा नही जा सकता ..उस का होना एक निर्धारित क्रम में जीवन ने लिखा ...बस उस का सामना करना ही अंतिम लक्ष्य है ...जहां विजय आप के साहस पर है ...आप अपने आपसे विजय होकर संतुष्ट होते है..
तीसरा पड़ाव बुढ़ापा है..जो आना सबके साथ तय....यह फिर हमें बचपन कि ओर खींच लेता है ..जहां अंत का इंतजार होता हैं .. बस ...इंतजार...इंतजार ...ओर इंतजार....



Saturday 14 April 2018

कलम को बस चलने दो...

कभी-कभी बिना सोचे कलम को चलने दिया जाता है.....चलने इसलिए दिया जाता है... क्योंकि दिमाग का बोझ कम हो सके... पर बहुत कुछ सोचने और लिखने को होता है... पर लिख नहीं पाते है। समाज में बहुत से विषय है जिस पर कलम रोज लिखने को कहती है ...पर लिखने की तीव्रता शांत सी हो गई है। जिसमें कम विचारों का बोझ है ...जो बिना धार वाली तलवार जैसी मालूूम होती है। लिखना पसंद है ... पर ऐसा लिखना जिसमें मन बैचेन न हो ..बल्कि जिसे लिखने के बाद मन शांत हो सके। ऐसे लिखने के लिए कलम चलनी चाहिए.. पर ऐसा होता नहीं है।
कलम शांत होने के लिए नहीं हो सकती ...वह विचारों को और अधिक विभाजित कर देती है.. वह उतनी ही तीव्र गीत से मस्तिष्क पर बोझ डालती है। जिसमे लिखने की कला का कौन सा विचार काम करता है.. नहीं पता होता हैै...पर मन के कोने पर विचारों की उथल-पुथल परेशान जरुर करती हैै।
समाज को जितना अधिक समझने का प्रयास करते है...  वह समाज वैसा ही जवाब देता है की दुनिया ऐसी क्यों है?...... कभी-कभी विचार भी स्वंय में सवाल पूछने लगते है की यह जो सोच रहा हूँ... वह सही है... सही सोचता हूँ.. तो क्रिया भी वैसी ही हो..... पर बार-बार सोच हारने लगती है .. मन का कोना एक ही सवाल का उत्तर यह कहकर देता है कि इससे बेहतर है.. और कुछ जिन्दगी में सपने हैै... जो कभी हारने नहीं देते है.. शायद बहुत कुछ है जिसे सीखने की ललक अभी बाकि है .. जिसे ता उम्र सीखना है..
हार होने के बाद फिर नया रास्ता तय होता है और वह अधिक तीव्र गति से मस्तिष्क को सोचने देगा .. ऩई उर्जा से कार्य करने को कहता है..
फिर नये सपने को पंख देता है .. हार फिर कुछ नया अनुभव देता है.. नया तय करने को कहता है..
मंजिल को जीतना ढूंढते है... वह उतना अधिक भटकाव देगी ..
पर मंजिल जरुर मिलेगी...

Monday 23 January 2017

क्या शहर बदल देता है?


शहरों की चकाचोैंध हमेशा से ही लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र रही है। जहां की रौनक लोगों को उसी धरातल पर बसने की बेबसी पैदा करती है। यह बेबसी डर से निर्मित नहीं होती है, इसके बीज को अंकुरित होने में वही पानी और खाद्य होती है जिसे हम मस्तिष्क में उपजने का मौका देते है।
शहरों का अपना रूप है, अपना आकर्षण, अपना सौंदर्य, अपनी चमक जो व्यक्ति को एक बार आने के बाद बसने का मौका ही नहीं बल्कि एक उस समाज से रूबरु कराती है, जहां भीड़ है पर लोग शांत रहना जानते है। वही भागती जिन्दगी जीवन की एक परिभाषा होती है। शहरीपन एक मद पैदा करता है। मद हमेशा से आवेश में बौखलाहट पैदा करने का काम करता है। वही बौखलाहट शहरी जीवन का एक अर्थ होता है।
शहर के कौन से कोने से क्या लागव हो जाए पता ही नहीें चलता। ऐसे लगाव में सब अपना सा लगता है। जिस गांव, मोहल्ले, गली की रौनक को शहरों में महसूस करने लगते है। शहरों में अपने होने की चर्चा करते है। आधे में पूरे होने की जिद्द पैदा करते है। शहरी चकाचौंध में कभी-कभी अपने आपको अपने से अलग कर देते है। जिसकी रोशनी केवल आँखों में कल्पना का काला चश्मा बांधने का काम करती है। जिस दिन वह काला चश्मा आँखों से उतरता है... उस दिन हम अपने आपको दूर महसूस करते है।
क्यों शहरों की ऐसी छवि जहन में तैयार होती है। छवि का आकार विचित्र कल्पना से निर्मित होता है जिसे जितने भी कोण से देखते है, वह उतना ही अलग दिखता है।
शहरों का न पानी अच्छा होता है, ना हवा फिर भी हर कोई इसी शहर में रहने की इच्छा करता है। केवल पानी और हवा का ही अंतर नहीं व्यक्ति के विचारों को शहर परिवर्तित कर देता है। विचारोें की काया में बहुत कुछ बदल जाता है। जिसमें व्यक्ति को स्वंय से बड़ा कुछ नहीं दिखता है, केवल व्यक्ति के जहन में अधिक से अधिक इच्छा पूरी करने की ख्वाहिश पलती है, जो जहन को ऐसे परिवर्तित कर देती है कि इंसान स्वंय के रिश्तों में भी लाभ की तलाश करता है। केवल व्यक्ति स्वंय में सिमटने की कोशिश करता है। सब कुछ बदलने की कोशिश करता है। हम चाहकर भी इच्छा को रोकते नहीं बस शहरों की चकाचौंध में रिश्तों की तलाश करने लगते है, जो स्वंय में पूर्ण होने की आभा दे सके।
क्या है शहरों के मिट्टी में, हवा मेंपानी में जो बदलाव पैदा करता है। क्या है? जो व्यक्ति में स्वंय का ही बोध करता है। लोग केवल दौड़ लगा रहे होतें हैं... कोई नौकरी के लिए, कोई पढ़ने के लिए, कोई सुकून की तलाश के लिए। इसी दौड़ में एक दिन शुरू होता है अध्यात्म का खेल। जो दौड़ते जीवन को शांति देने का ढोंग करता है। जो दिलासे बांधने की जमीन देता है। अध्यात्म शहरी जीवन में बदलाव की किरण का काम करता है जिसे केवल महसूस कर सकते है, लेकिन बदलता क्या है?
क्या शहर बदल देता है?


Thursday 8 December 2016

क्या होगा किसी उद्देश्य का अंतिम बिंदु?

"हिम्मत करने वाले की हार नहीं होती" यह वाक्य हमेशा आपने सुना होगा। जब भी कोई हार जाता है तो हम यही तो कहते है कि हार मत मान प्रयास करते रहो। समय बदलेगा और हार जीत में परिवर्तित होगी। लेकिन समय से बलवान कुछ नहीं है। समय सब निर्धारित कर देता है।
इन सब विचारों में केवल दर्शन की महक है जीवन इससे बहुत भिन्न है जिसमें हार केवल हार है और जीत केवल जीत। जीत केवल उम्मीद, आस, भविष्य की कल्पना को ढोर देने का काम करता है, तो हार केवल दर्द, घुटन, कायरता की गूंज पैदा करेगा। 
हम हमेशा हार को जीत में परिवर्तन करने की कोशिश करते है। कोशिश के लिए प्रयास की रोशनी की तलाश करते है। अपने आपको दिलासा देने की कोशिश करते है। जिसमें जीवन का दर्शन तय किया जाता है।
पहाड़ो में एक कहावत प्रचलित है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी कभी पहाड़ के काम नहीं आती है। वैसे ही जीवन के रास्ते को तय करते हुए यह लगने लगता है की पहाड़ के जीवन की तरह हमारी जिंदगी है। जहां हमेशा केवल विचारों को, सपनों को, उम्मीदों को, नई सोच को तय होने के बाद हम उसका इस्तेमाल ही नहीं कर पाते हैें। हर बार विचारों के आधार पर उसे बुनते है। कभी किसी सपने को पूरा करते हैं तो कभी बस निर्धारित करते-करते रह जाते है।
कभी भी अपने विचारों को समझ ही नहीं पाया हूँ जब भी समझने का प्रयास किया। केवल खाली मस्तिष्क में शून्य का बिंदु पाया है। जीवन की राह कब किसे निर्धारित करने का मौका देती है और किसे विराम कभी तय ही नहीं हो पाता है। एकाएक एक दिन समय के साथ जवाब मिल जाना ही जवाब होता है।
कभी सवाल यह उठता है कि जीवन के सफर में किसी उम्मीद को तय करने और बंद करने का निर्धारण कब बंद करना चाहिए। जब भी उत्तर की खोज करता हूँ तो केवल विचारों की क्रांति में मस्तिष्क के धरातल को सोच के करीब तय करने का पहला मौका देती है और बंद करने का भी मौका।

एक मित्र ने कुछ सुंदर पंक्ति में अपनी बात को समझाने का प्रयास किया मित्र कहता है जिस दिन हम किसी उद्देश्य के अंतिम बिंदु को मस्तिष्क में बांध लेते है तो कोई ऐसा बिंदु नहीं होता है। जो हमें उस दुख या हार से तोड़ दे क्योंकि हम अंतिम का निर्धारण कर ही आगे बढ़ते हैं। यही सब तय करने का मौका देते है जो कभी सोच के धरातल से जमीन को तय कर देता है। 
बस जीवन का मूलमंत्र ऐसे ही तय कर आगे बढ़ते जाए।

Monday 5 December 2016

किसी के लिए घृणा पैदा क्यों नहीं होती है?


पहली किश्त.........

सवाल खेल की तरह ही होते है जो बार-बार खेल खेलते रहते हैं। कभी इन खेलों में हार होती है तो कभी जीत। जिंदगी का कुछ पल ऐसे ही होता जिसमें एक पल हार निर्धारित होती है, तो एक पल में ही जीत। केवल अंतर के धरातल पर विचारों का अंतर होता है। जब हम विचारों के धरातल पर यह सोचने लगते है तो कुछ सवाल ऐसे तैयार हो जाते है, जो यह तय ही नहीं कर पाते घृणा विचारों के बिंदु पर पैदा होती है या किसी अन्य बिंदु पर धृणा की जमीन तैयार होती है।
 विचारों में हमेशा किसी बात को तय करना की कोशिश रहती है, जिसका धरातल मस्तिष्क पर ही पैदा होता जाता है। केवल बाहरी आवरण उसे धरातल पर लाने का काम करता है या फिर प्रयास की रूपरेखा देता है। लेकिन कहीं बिंदु ऐसे होते है जो घृणा पैदा ही नहीं करने देते। हम सोचकर भी किसी के प्रति घृणा पैदा नहीं कर पाते है। हम बस अपने आपसे यही पूछते है ....

घृणा पैदा कैसे की जाए?

Friday 30 October 2015

कुमाऊं संस्कृति की संस्कार परंपरा (अंतिम संस्कार के संदर्भ में)

संस्कार की परंपरा भारतीय समाज को एक अलग पहचान दिलाती है.. संस्कार की परंपरा में बहुत सी परंपरा आती है। जिसमें जन्म के साथ नामकरण, मौत के साथ अंतिम संस्कार आते हैं.... दोनों ही संस्कार मनुष्य के जीवन का हिस्सा है.... लेकिन एक हिस्से में मनुष्य का चित होता है तो दूसरे हिस्से में बिना चित का मात्र देह(शव)... जन्म संस्कार में मनुष्य को अपनी पहचान के लिए नाम दिया जाता है....वही अंतिम संस्कार में उसका देह का अंत किया जाता है।
आज केवल कुमाऊं के पहाड़ी परंपरा के अंतिम संस्कार पर लिखा रहा हूँ .. जहां व्यक्ति खुद उपस्थित होकर भी खुद की उपस्थित दर्ज नही करा पाता है... कुमाऊं में अधिकत्तर जनसंख्या हिंदू धर्म को मानने वाली हैं.. जहां किसी की मृत्यु पर उसके देह को परिवार,गांव,समाज द्वारा अंतिम यात्रा दी जाती है .. जिसे कहा जाता है मलामी ... कुमाऊंनी संस्कृति में अंतिम यात्रा को इसी नाम से संबोधित किया जाता है... जहां नदी पर चिता का निर्माण किया जाता ... चिता से पूर्व गांववाले उस परिवार को सहयोग के नाम पर कुछ राशि देते हैं.. उसी के साथ-साथ अंतिम संस्कार के लिए कुछ लकड़ी भी देते हैं... जो चिता को बनाने में प्रयोग कि जाती है..... पहाड़ी जीवन की संस्कृति का यह हिस्सा है.. जिसे गांव के भाईचारे का संबंध कहा जाए या फिर ग्रामीण संस्कृति का हिस्सा ... लेकिन यह संस्कृति ही एक गांव के समाज संबंध की नींव रखती है... जिसे आज भी गांव की संस्कृति कहा जाता है।
अंतिम यात्रा में संस्कार को नदी के किनारे किया जाता है जहां चिता को बनाया जाता है.. औरतों को आज तक अंतिम यात्रा में शामिल होने नही दिया जाता है .. जिसे हिंदू संस्कृति का हिस्सा माने या फिर यह माना जाता है स्त्रीयां शव को जलते हुए देख नही सकती है.. उनके कोमल स्वाभाव को भी कारण माना जाता है.. इसी कारण से महिलाओं को अंतिम शव यात्रा में शामिल नही होने दिया जाता है।
अंतिम संस्कार से पूर्व पिंड का दान किया जाता है। जिसे सूर्य को अर्पित किया जाता है.. नदी किनारे चिता का निर्माण किया जाता हैं... जहां देह को अग्नि के सुपूर्द कर दिया जाता है.. जहां उसके क्रिया कर्म करने वाले व्यक्ति के बालों का मुंडन करने की भी परंपरा को निभाया जाता है.. उसके पश्चात अंतिम संस्कार में आये व्यक्तियों को नदी के पास ही भोजन कराया जाता है... बाद में जिस व्यक्ति ने चिता को मुख अग्नि दी होती है .. उसे क्रिया कर्म करना होता है.. जिसे पुत्र द्वारा ही किया जाता है.. जिसमें बारह दिन की कड़े नियमों का पालन करना होता है ..जिसमें 10 दिन तक एक कलश में ज्योत जलाया जाता है .. और हर प्रातकाल को कुछ गांव के हिस्से में जाकर कुछ नियमों का पालन करना होता है .. जिसे पंडित द्वारा धार्मिक कर्मकाण्ड के अनुसार कराया जाता जाता है(पहाड़ी बोली में इसे गाड़ का काम कहते हैं) .. जिसमें रोज पिंड दान , नहाना आदि नियमों को किया जाता है.. साथ ही क्रिया पर बैठे व्यक्ति को एक अलग कमरे रख जाता है .. जहां महिलायें अंतिम क्रिया पर बैठे व्यक्ति को देखने की अनुमति नही होती है... क्रिया पर बैठे व्यक्ति को कफन का कपड़ा सिर पर बांधना होता है .. और 10वें दिन तक कलश में जले ज्योत की और सिर रख सोना होता है.. केवल एक समय खाना खाने कि अनुमति होती है.. वह भी कुछ नियम के अनुसार ही खाने की अनुमति होती है... उसी के साथ परदे का घेरा बनाकर क्रिया कर्म के व्यक्ति को रहना होता है .. जहां वह 12 दिन तक रहता है..आदि अन्य क्रिया कर्म के नियमों का पालन करना होता है।
10 दिन बाद परदे का घेरा खतम हो जाता है और परिवार द्वारा घर के सभी कपड़ों को धोया जाता है ..साथ ही गाड़ का कार्य खतम हो जाता है.. कलश के  ज्योत को 10 वे दिन नही जलाया जाता है। 12वें दिन बाद ही पंडित द्वारा घर में शुद्धि पूजा की जाती है ..  जिसे पीपल पीठा कहा जाता है .. जिसमें पंडित द्वारा पीपल के पत्तों की पूजा की जाती है .. जिससे माना जाता है .. अब घर पर शुद्धि हो जाती है...इन 12 दिनो में एक परंपरा मुखतक नाम की भी होती है जिसमे परिवार के मित्रगण, दूर के सगे संबंधी आदि जो मृत्यु पर शोक व्यक्त करने आते है... जिसमें..वार अर्थात् किसी विशेष दिन ही अन्य व्यक्ति शोक व्यक्त कर सकते है... जिसमें साधारण दिनों से उलटे दिन चुना जाता है.. जिसमें मंगवार, शानिवार जैसे वार शामिल होते हैं.. और क्रिया कर्म पर बैठे व्यक्ति को सांत्वना के शब्द के साथ कुछ दान दिया जाता है।
इसी तरह से अंतिम संस्कार की परंपरा पहाड़ों में प्रचलित है..साथ 12वें दिन पंडित को दान और पीपल पीठा कर घर को शुद्ध किया जाता.. और 12वे दिन गांव को चावल दाल का भोजन कराया जाता है.. और 6 माह के लिए अन्य कार्य छोड़ दिया जाते है .. लेकिन क्रिया पर बैठे व्यक्ति को 6 माह तक कुछ नियमों का पालन करना होता है ... जिसमें खाने में शुद्धता .. नहाने... पूजा आदि नियम शामिल होते हैं.. 12 वे दिन के बाद से घर के मंदिर में दिए जलाने शुरु हो जाते हैं... और क्रिया पर बैठा व्यक्ति अपने रोज के दिनचर्या में आ जाता है .. लेकिन 6 माह के बाद छमासी करनी होती है .. जिसमें पिंड दान ..पूजा .. गांववासीयों को भोजन करना आदि शामिल होता है।
जिस तरह से मनुष्य की जीवन यात्रा शुरु होती है उसका अंत भी होता है... जिस अग्नि से मनुष्य के जीवन को नामकरण संस्कार में हवन कर नाम दिया जाता है.. जिस अग्नि से मनुष्य खाने के लिए भोजन को पकता है... जीवन के साथ फेरे लेता है...एक दिन उसी अग्नि में अपने शव को जलते हुए इस दुनिया की यात्रा से अंत होता है...
अग्नि की भूमिका उसके जलने की प्रवृति ..अंत में मनुष्य के जीवन का भी अंत कर देती है। हर एक यात्रा का कोई अंत जरुर होता है.... वैसे ही जीवन की यात्रा का अंत अंतिम संस्कार नामक यात्रा से होता है.. जो बस उसकी यादों के साथ परिवार में रह जाती है.... बस एक यात्रा के समाप्त होने के साथ ही जीवन की दूसरी यात्रा का अनुमान लगाते है....
(अंतिम संस्कार में कई क्रिया कर्म के कार्य को किया जाता है...लेख में केवल कुछ की ही चर्चा हुई है)

संदर्भ सूची
गांव के बुजुर्ग व्यक्ति से बातचीत।
क्रिया कर्म की प्रक्रिया को देखना।